लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> वी. ओ. चिदम्बरम पिल्लै

वी. ओ. चिदम्बरम पिल्लै

आर. ए. पद्मनाभन

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :78
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5754
आईएसबीएन :81-237-4356-4

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

93 पाठक हैं

प्रस्तुत है वी. ओ. चिदम्बरम पिल्लै का जीवन चरित...

V. O. Chidambaram Pillai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वी.ओ. चिदम्बरम पिल्लै (1872-1936) को वैसे तो  भारतीय जहाज उद्योग को सम्मान जनक स्थान दिलवाने के लिए याद किया जाता है, पर वे एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। भारतीय जहाज कंपनी शुरू करने के कारण उन्हें अंग्रेज सरकार ने अत्यधिक प्रताड़ित किया। वे लंबे समय तक जेल में भी बंद रहे, जहाँ उन्हें कोल्हू तक में जोता गया। श्री पिल्लै एक प्रखर वकील भी थे। अपने जीवन का अंतिम चरण उन्होंने साहित्य सेवा में व्यतीत किया। यह पुस्तक श्री पिल्लै के बहु आयामी जीवन के साहस और उनके देश को योगदान का संक्षिप्त लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है।

1
भारतीय जहाजरानी की शानदार परंपरा

भारत के समुद्र-तट पश्चिम में नए कांडला से पूर्व में कोलकाता तक छह हजार किलोमीटर से भी अधिक यानी लगभग चार हजार मील की लंबाई में फैला हुआ है। प्राचीन काल से ही तीन तरफ से समुद्र से घिरा दक्षिण का बड़ा प्राय द्वीप विश्व के समुद्रपारीय दूरवर्ती देशों से भारत का सम्पर्क स्थापित करने में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करता रहा है। इतिहासकाल के बहुत पहले से ही भारतीय व्यापारी अपने जहाजों में बेशकीमती सामान चीन से लेकर तथा मिश्र, बेबीलोन तथा चल्लिया तथा फिलीस्तीन और रोम की यात्रा किया करते थे।

पश्चिम में भारतीय जहाज फारस की खाड़ी के रास्ते युफ्रेटस और तिगरिख नदियों के मुहाने तक जाते थे, जहां से भारतीय माल नौकाओं और ऊंटों पर लदकर नाइनवेह, उर, बेबीलोन तथा अन्य भीतरी नगरों में पहुंचाया जाता था। कुछ जहाज लाल सागर के रास्ते नील नदी के मुहाने तक पहुंचते थे, जिसके निकट स्थित एक बड़े बाजार में भारतीय व्यापारी अपना माल एकत्र करते थे तथा अपने माल के बदले दूसरे देशों का माल खरीदते थे। नील नदी के मुहाने से अन्य भारतीय जहाज भारतीय माल को भूमध्य सागर के पार रोम और ग्रीस तक पहुँचाते थे।

पूर्व में भारतीय जहाज बंगाल की खाड़ी पार करके वर्तमान काल के बर्मा, हिंद-चीन और मलाया जैसे देशों में जाते थे और मलक्का के जलडमरूमध्य को पार करके, जावा, फिलीपीन तथा विशाल देश चीन पहुंचते थे। दक्षिण-पूर्व एशिया और सुदूर पूर्व में कोरोमंडल (चोल मंडल) तट के कटभरन (बेड़े) और धोनी, आंध्र की मसुल नौकाएं तथा कलिंग (उड़ीसा) और बंगाल के समुद्री जलयान अक्सर देखे जाते थे। पश्चिम में फारस की खाड़ी तटवर्ती देशों, लाल सागर और उत्तर अफ्रीकी तट निवासी काठियावाड़ के स्कूनरों और ब्रिगों तथा कन्याकुमारी और मालाबार तथा कोंकण के समुद्री जलयानों में भलीभांति परिचित थे।

प्राचीन काल के भारतीय व्यापारी दूरवर्ती देशों में कौन-कौन से बहुमूल्य सामान ले जाते थे ? कितना विस्तृत था उनका व्यापार ?
इसके प्रमाण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। प्राचीन काल के अनेक अभिलेखों और साहित्य-ग्रंथों में भारत से आयात किए जाने वाले सामान का वर्णन प्राप्त होता है। वर्तमान इराक में युफ्रेटस नदी के तट पर स्थित बेबीलोन, जो 1800 तथा 539 ईं पूर्व के बीच के काल में अपने ऐश्वर्य के चरम पर था, पाश्चात्य विश्व का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र था। इससे भारतीय व्यापारी भली-भांति परिचित थे और वहां अक्सर देखे जाते थे। ईसा पूर्व शताब्दी में बेबीलोन के शासक राजा ने बुचरनाजर ने अपने प्रसिद्ध महलों और मंदिरों के निर्माण के लिए दक्षिण भारत में स्थित मालाबार से देवदार की लकड़ी मंगाई। लगभग इसी समय युफ्रेटस-तिगरिस घाटी में स्थित चलदीस के उर में चंद्रमा के विशाल मंदिर के निर्माण में मालाबार की सागौन की लकड़ी का उपयोग किया गया था।

 बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंड में लिखा है कि येरुसलम का राजा सोलोमन 973-933 ई. पू. मालाबार तट से आयातित सोना, चाँदी, हाथी दांत, चंदन की सलकड़ी, हबंदरों और मोरों पर गर्व करता था। जब शेबा की रानी सोलोमन से मिलने आई तो अपने साथ ऊंटों के एक बड़े कारवां पर बड़ी मात्रा में भारत से आयातित मसाले, सोना और वेशकीमती पत्थर लेकर आई। फोनीसिया के राजा हिरम ने लाल सागर के तट पर एक बड़ा बंदरगाह बनवाया जहां भारत के विशाल व्यापारी जहाज बहुमूल्य सामान लेकर आया करते थे।

प्राचीन रोम के नागरिक भारतीय व्यापारियों से बारीक सूती कपड़ा तथा अन्य सामान खरीदते थे जिसका भुगतान रोम के सोने के सिक्कों से किया जाता था। एक समय भारतीय माल इतने अधिक परिमाण में खरीदा जाने लगा था कि वहां यह चीख-पुकार मच गई  कि भारत से आयात के कारण रोम का धन वहां चला जा रहा है।

ग्रीस के ‘पेरिप्लस’’ नामक प्रसिद्ध यात्रा वृत्तांत के अज्ञात लेखक ने, जो अपनी व्यापक यात्रा के दौरान 40 ई. के आसपास भारत आया था, लिखा है कि उसने दक्षिण भारत के बंदरगाहों पर अरब देशों और ग्रीस के अनेक जहाज देखे जिन पर बिक्री या विनिमय के लिये माल लदा हुआ था। दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में रोम के सोने और चांदी के सिक्के प्राप्त होने से यह प्रमाणित होता है कि भारत और रोम के बीच बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। यह व्यापार इतने बड़े पैमाने पर होता था कि तमिलनाडु के पांड्य शासक, सम्राट टिवेरियस (42 ई. पू.) के शासन काल में रोम की राजधानी में अपने राजदूत रखा करते थे।

इसी प्रकार मिस्र में भी ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण प्रचुर मात्रा में मिले हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि अत्यंत प्राचीन काल से ही दोनों देशों के बीच अत्यधिक व्यापार होता था। इतिहासकाल के.ए.. नीलकंठ शास्त्री के अनुसार, ‘‘तत्कालीन अनेक मिस्री अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ई.पू. दूसरा सहस्राब्दी में भारत और मिस्र के बीच व्यापार होता था इन अभिलेखों में दक्षिण भारत की विशिष्ठ वस्तुओं के नाम भी दिए गए हैं। भूमध्य सागर के देशों के साथ यह सम्पर्क ई.पू. दूसरी सहस्राब्दी के पहले से ही रहा होगा क्योंकि ई.पू. पहली सहस्राब्दी और बाद के काल में तो यह अवश्य ही जारी रहा।’’

चीन के इतिहास ग्रन्थों में ऐसे उल्लेख है जिनसे पता चलता है कि ई. पू. सातवीं शती में भारत के समुद्री व्यापारी अपना विशिष्ट सामान लेकर चीन जाते थे। लगता है चीनवासियों को मुसल (आंध्र में मसुलीपत्तनम का मलमल) तथा दक्षिणी समुद्र (वर्तमान तिरुनेलवेली तट) से प्राप्त होने वाला अद्वितीय मोती विशेष रूप से पसंद आता था। इसके अलावा भारतीय जहाज शीशे के मनके, चूड़ियां बेशकीमती पत्थर, छुरियां कृपाण, बर्छी की फली और बर्तन भी चीन ले जाते थे। भारतीय मूल की ऐसी वस्तुएं पुरातत्व विशेषज्ञों को मलाया प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा, उत्तर बोर्नियों, हिंद-चीन और फिलीपींस में भी प्राप्त हुई हैं, जिनसे यह निष्कर्ष निकलता है प्राचीन काल में भारत और पूर्व के देशों के बीच समुद्र के रास्ते बड़े पैमाने पर व्यापार होता था।

प्राचीन काल में ही भारत में ज्वार-भाटा तथा हवाओं, समुद्री जहाजों के निर्माण बंदरगाहों तथा नगरों के रखरखाव, तथा नाप-तोल की मानक प्रणाली को कड़ाई से लागू करने के मामले में बहुत तरक्की कर ली थी इनके अलावा सीमा-शुल्क के विनिमय भी बने हुए थे। पाश्चात्य देशों में मानसून हवाओं की जानकारी मिस्री नाविक हिप्पेलस ने 45 ई. में दी थी, भारतीय नाविकों को यह जानकारी बहुत पहले से प्राप्त थी। इन मौसमी हवाओं का लाभ उठाकर भारतीय जहाज महासागरों को आसानी से पार करके नियत समय पर गंतव्य स्थान पर पहुंच जाया करते थे। मालाबार की इमारती लकड़ी से भारत में बने जहाजों में नारियल के रेशे से ऐसी व्यवस्था की जाती थी कि पानी रिस कर भीतर न आए। नारियल के रेशे से बने ये तिरपाल मिस्र और चीन के जहाजों के तिरपालों की अपेक्षा अधिक टिकाऊ और बड़े होते थे। बंदरगाहों की व्यवस्था अच्छी होती थी और इनसे जुड़े नगरों में सभी देशों के व्यापारी रहते और व्यापार करते थे। इन व्यापार तथा आवासीय केंद्रों में विदेशी नागरिकों के लिए अलग खंड होते थे।

भारतीय और विदेशी स्रोतों से देश के पूर्वी और पश्चिमी घाटों पर अनेक बंदरगाहों की जानकारी प्राप्त हुई है।  मालाबार तट पर बेरीगाजा; (गुजरात के भड़ोच), कन्हेरी (महाराष्ट्र में कोंकण तट पर) नौरा (कन्नूर), टोंडी (पोन्ननी) कोलल्म और मज़िरिस क्रंगनूर—सभी मालाबा तट पर; तमिलनाडु के कोरोमंडल तट पर (कन्याकुमारी),  कोरकई (ताम्रपर्णी नदी के मुहाने पर), पुहर (कावेरी नदी के मुहाने पर) और मरक्कनम (पाडिचेरी के पास) तथा महानदी के मुहाने पर धौली—ये सभी प्राचीन भारत के कुछ बंदरगाह थे जहां ईसा पूर्व 300 शताब्दी में भी व्यापार होता था।

पुहर, प्राचीन तमिलनाडु का सर्वाधिक प्रसिद्ध बंदरगाह था। तमिल संगम काव्य ‘पत्तिनप्पलई’’ की रचना लगभग पहली या दूसरी शताब्दी में हुई थी जिसमें पुहर के व्यापार तथा वहां के जीवन का सुंदर वर्णन किया गया है। पुहर, मुख्यतः एक वाणिज्यिक केंद्र था जहां के अधिकांश निवासी दूरस्थ देशों से व्यापार करते थे। बाज़ारों में दोनों तरफ बहुमंजिली इमारतें थीं जिनकी नीचे की मंजिल में व्यापार होता था तथा अन्य मंजिलों पर आवासीय व्यवस्था थी। रचना के अनुसार महलों में अनेक दरवाजे, बरामदे और गलियारे होते थे जिनमें सभी जगहों पर जोर-शोर से व्यापार होता था। बाज़ार, निर्यात के लिए एकत्र माल तथा भारत आने वाले जहाजों से उतारे गए माल से भरे रहते थे। बंदरगाह में जहाजों के मस्तूल पर अनेकों देशों के झंडे लहराते थे। विभिन्न प्रकार की व्यापारिक वस्तुओं तथा शराब की दुकानों का प्रचार करने वाले झंडे और पताकाएं भी लहराती थीं।

पुहर प्रथम कोटि का बंदरगाह था जिसमें जहाज ‘बगैर पाल झुकाए’ प्रविष्ट हो जाते थे। वे समुद्र तट पर अपना माल उतारते थे। यहां लोग अनेक भाषाएं बोलते थे और अनेक देशों के नागरिक यहां देखे जा सकते थे। सड़कों पर कहीं यवन (ग्रीस से) जहाजों द्वारा लाए गए घोड़े दौड़ते दिखाई देते थे, कहीं मिर्च की बोरियां लादे गाड़ियों बंदरगाह की ओर जा रही होती थीं, तो किसी गाड़ी पर सैनिक उत्तर के पहाड़ों से प्राप्त सोने और जवाहरात की रक्षा कर रहे होते थे। कहीं माल लद रहा होता था, भूमध्य सागर के देशों को जाने वाले वाले जहाजों में चंदन की लकड़ी लद रही होती थी। किसी दूसरी जगह व्यापारी दक्षिण से प्राप्त होने वाले मोतियों और मूंगे का मोल-तोल कर रहे होते थे। सड़कों के किनारों की दूकानें गंगाजल, ईज्हम (सीलोन) से प्राप्त अनाजों कंटहम (बर्मा) से प्राप्त सोने तथा अन्य प्रकार के सामान से भरी रहती थीं। इनकी बंधाई पर सीमा शुल्क अधिकारियों की मुहर लगी होती थी जिससे यह स्पष्ट होता था कि इनके निर्यात के लिए स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है।

‘पेरिप्लस’ के अनुसार मालाबार तट के मुजरिम अरब और ग्रीस से माल लेकर आने वाले जहाजों से भरे रहते थे। ये जहाज सोना, चांदी, पुखराज, तांबा, टीन सीसा और कुछ बढ़िया किस्म की शराब ले आते थे और यहां से काली मिर्च, चंदन की लकड़ी, हाथीदांत मोती, तथा जवाहरत ले जाते थे। यवन अपने जहाज मुजरिस में ले आते थे। भारतीय समुद्र में तीन प्रकार के जहाज चलते थे—तटवर्ती मार्गों पर चलने वाले छोटे जहाज, लकड़ी के कुंदे जोड़कर बने तथा अपेक्षाकृत बड़े जहाज तथा दूरस्थ देशों को जाने वाले बड़े जहाज।

बाद की शताब्दियों में जहाजरानी के क्षेत्र में भारत के पराक्रम का परिचय मेगास्थनीज, स्ट्राबो, बड़े प्लिनी, टोलेमी, हुएनसांग, फाहियान, आइ-सिंग तथा निक्कोलो कोंनटी, वांग यवान, चेंग हो, इब्नतूता और मार्को पोलो जैसे विदेशी यात्रियों के स्वलिखित यात्रा वर्णनों से प्राप्त होता है। चीन के इतिहास से, आठवीं शताब्दी में चीन तथा कांची के पल्लव दरबार के बीच और ग्याहरवीं शाती में चोल दरबार के बीच राजदूतों के आदान-प्रदान के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इसकी चर्चा करते हुए नीलकंठ शास्त्री ने लिखा है : ‘‘बाद की शताब्दियों में चीन और दक्षिण भारत के बीच अच्छा व्यापार होता था तथा चीन के जहाज भातीय समुद्र में स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करते थे। महान मुगल सम्राट कुल्लई खां ने दक्षिण भारत के राज्यों को कई राजदूत भेजे।’’ पल्लव शासकों के समय में ममल्लपुरम (महाबलीपुरम) पूर्वी तट पर सबसे बड़े बंदरगाह था। नौवीं शती के बाद अरब यात्रियों तथा भूगोलविदों ने भारत और अरब देशों के बीच व्यापार-संबंध स्थापित करने में सहायता की। भारत महासागर का अधिकांश व्यापार इन्हीं लोगों के हाथों में रहा।

भारत के विषय में लिखने वाले अरब लेखकों में, चौदहवीं शती में भारत की यात्रा करने वाले इब्नबतूता का यात्रा-वर्णन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जिसमें उसने दक्षिण भारत में अपने अनुभवों पर प्रकाश डाला है।


 

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book